नारी विमर्श >> आनन्द धाम आनन्द धामआशापूर्णा देवी
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अक्सर हम परिस्थिति के साथ समझौता करते-करते इतना दबते चले जाते हैं कि जीवन के सही मूल्यों के लिए लड़ने की क्षमता भी खो बैठते हैं। केवल एक पीड़ा का अनुभव होता है और फिर हमारा ज़मीर सो जाता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बाजार में घूमते-घूमते एक दिन शंखधर को निरानंद मिल गया। उसे घर ले आये
क्योंकि किशोर-वयस्क निरानंद अथवा नीरू में उन्हें अपने ही अतीत जीवन की
छवि दिखाई पड़ी। वह लांछना अत्याचार तथा अपमान भरा जीवन था जिससे मुक्ति
पाने के लिए उन्होंने घर छोड़ा था। परन्तु वृद्ध शंखधर तथा किशोर नीरू की
आत्मीयता को उसके परिवार के लोगों नें सरलता से स्वीकार नहीं किया।
भाग्यचक्र ने नीरू को फिर सड़क पर ला दिया।
ये सभी आनंदधाम के वाशिंदे थे। जहाँ सब कुछ होते हुए भी आनंद की ही कमी थी। यह सत्य और भी नग्न होकर शंखधर को दृष्टिगोचर हुआ, जब दरिद्र अभागे नीरू की डायरी उसके हाथ लग गई।
यह उपन्यास एक संकेत छोड़ जाता है कि अक्सर हम परिस्थित के साथ समझौता करते-करते इतना दबते चले जाते हैं कि जीवन के सही मूल्यों के लिए लड़ने की क्षमता भी खो बैठते है। केवल एक पीड़ा का अनुभव होता है और फिर हमारा जमीर सो जाता है।
ये सभी आनंदधाम के वाशिंदे थे। जहाँ सब कुछ होते हुए भी आनंद की ही कमी थी। यह सत्य और भी नग्न होकर शंखधर को दृष्टिगोचर हुआ, जब दरिद्र अभागे नीरू की डायरी उसके हाथ लग गई।
यह उपन्यास एक संकेत छोड़ जाता है कि अक्सर हम परिस्थित के साथ समझौता करते-करते इतना दबते चले जाते हैं कि जीवन के सही मूल्यों के लिए लड़ने की क्षमता भी खो बैठते है। केवल एक पीड़ा का अनुभव होता है और फिर हमारा जमीर सो जाता है।
भूमिका
बंगला साहित्य गगन में असंख्य सितारे दीप्तिमान हैं, जिनमें एक चमकता
सितारा अपनी विशिष्टता से अनायास ही हमारी दृष्टि को आकर्षित कर लेता है।
इसमें भड़कीली चमक-दमक तो नहीं, पर इसका समुज्जवल निरंतर प्रकाश हमें
मंदिर के उस दिये की याद दिलाता है, जो न केवल अंधकार दूर करता है, बल्कि
जीवन के प्रति एक अटल विश्वास जगा सकता है।
बारहवें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी एक ऐसी ही सितारा हैं, जिन्होंने उपन्यास तथा कहानी-लेखन में समान रूप से दक्षता का परिचय दिया। इनका जन्म सन् 1910 के 8 जनवरी को कलकत्ते के एक संरक्षणशील परिवार में हुआ। स्कूल-कॉलेज की औपचारिक शिक्षा इन्हें प्राप्त नहीं हुई। यह परम आश्चर्य की बात है कि जिन्होंने जीवन में उन्मुक्तता का स्वाद नहीं चखा, उनकी दृष्टि में इतना विस्तार कैसे आ गया। शायद यह उनकी साहित्य-प्रेमी माँ की प्रेरणा का फल था कि साहित्य में उनकी गहरी रुचि बचपन से ही हो गई।
उनकी प्रथम पुस्तक ‘जल आर आगुन’ सन् 1940 में प्रकाशित हुई। उन्हें ‘लीला पुरस्कार’ (सन् 1954), ‘मोतीलाल घोष पुरस्कार’ (1959), भुवन मोहिनी स्मृति पदक (1963), रवीन्द्र पुरस्कार (1966), तथा प्रथम उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मश्री’ की उपाधि से भूषित किया। इसके अतिरिक्त जब्बलपुर विश्वविद्यालय रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय तथा वर्धमान विश्वविद्यालय से इन्हें मानद डी.लिट्. की उपाधि प्रधान की गई।
मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में इन्होंने लिखना प्रारम्भ किया और जीवन के अंतिम दिनों तक लिखती रहीं। अपने सारे कर्तव्य पूरी तरह निभाते हुए, आचार-आचरण, पारिवारिक प्रथाओं को पूर्ण मान्यता देते हुए भी वे साहित्य-सृष्टि के कार्य में सतत् प्रयत्नशील रहीं।
चारदीवारी के भीतर रहकर उन्होंने वही जीवन देखा जो उनकी खिड़की के सामने था वह जीवन लाखों-करोड़ों मध्यवित्त लोगों का जीवन था और उनका अपना भी। इस जीवन में साधारण दृष्टि से कोई नाटकीयता नहीं थी। घटनाएँ वैसे ही सामान्य जैसी प्रति-दिन हमारे आस-पास घटती हैं। इस एक सुरे, स्वादहीन जीवन में आशापूर्णा देवी ने नाटक की रोचकता का आस्वादन किया, तरंगहीन नदी के भीतर से समुद्र की लहरों की तान सुनी। इस प्रकार ‘बिंदु में सिंधु दर्शन’, यही उनके लेखन की विशेषता रही। प्रतिपल घटने वाली सामान्य घटना कहानी के एक मोड़ पर आकर असामान्य हो गई। जीवन के आसपास मँडराते अनगिनत चरित्र, जिन्हें हम कोई मूल्य नहीं देते, लेखन के जादू-स्पर्श से वही चरित्र अचानक असामान्य होकर उभरे। पढ़कर ऐसा लगा—‘ऐसा ही चरित्र तो हमने देखा है, पर कभी इस तरह से उसे देखा समझा नहीं।’ यह आशापूर्णा देवी की अन्तर्दृष्टि ही है जो सामान्य में भी असामान्य का दर्शन कराती है।
अपने उपन्यास या कहानी के माध्यम से उन्होंने कभी कोई उपदेश या आदर्श स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उन्होंने जीवन को जिस रूप में देखा, वैसे ही प्रस्तुत किया। उसमें कहीं भी रत्ती भर अतिरंजन नहीं हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में निम्नवर्ग के दलितों की कथा नहीं है, उस उच्च वर्ग की कहानी भी नहीं है, आधुनिक साहित्य में आज जिसकी बड़ी चर्चा है। उन्होंने तो उसी जीवन को अपने लेखन का आधार बनाया, जिसका वह एक अभिन्न अंग थीं और उसी जीवन की उपलब्धियों को लोगों के सामने रखा।
साधारणतः हम कहानी का रस काव्यों और ग्रंथों में ढूँढ़ते हैं। परन्तु यह रस हमारे वास्तविक जीवन के आस-पास भरा पड़ा है, केवल हमें दिखाई नहीं देता। वह अन्तर्दृष्टि हमारे पास नहीं है, जिसकी सहायता से ‘सुख-दुख-समस्या’ भरे इस जीवन में से उस रस को निचोड़कर उसका आनन्द ले सकें। आशापूर्णा देवी ने अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से उस रस को खोज निकाला और अपनी निपुण रचनाओं द्वारा पाठकों को भी इसका रसास्वादन कराया।
इनकी रचनाओं में जीवन की दैनंदिन समस्याओं का उल्लेख है, सीधे-सादे सरल शब्दों में उनका वर्णन है। परन्तु जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार अपनी तूलिका के निपुण स्पर्श से चित्र में जान डाल देता है, वैसे ही आशापूर्णा देवी की लेखन-कुशलता सामान्य कथानक को असमान्य बना देती हैं।
इनकी रचनाओं में सर्वप्रमुख विशेषता है—इनका नारी चरित्र-चित्रण। अपने श्रेष्ठ उपन्यास—‘प्रथम प्रतिश्रुति’, ‘सुवर्णलता’ तथा ‘बकुलकथा’ में इन्होंने तीनों युगों से निकलते हुए नारी-जीवन के संघर्ष का चित्रण किया है। ‘सत्यवती’, ‘सुवर्णलता तथा ‘बकुल’ अपने-अपने युग की निर्यातिता नारी का प्रतीक हैं, जो निरंतर कुरीतियों से, असंतुलित समाज-व्यवस्था से तथा पुरुष-प्रधान समाज में घटित नारी-निग्रह से जूझती रहती हैं। अपने विभिन्न उपन्यासों तथा कहानी के माध्यम से इन्होंने नारी-चरित्र का मनोविश्लेषण बहुत गहराई से किया है।
आज नारी-मुक्ति, नारी-आंदोलन आदि के नित नये नारे सभा-समितियों में गूँजते सुनाई पड़ते हैं। वहाँ विद्रोह है, विक्षोभ है, पुरुष-विद्वेष है, जिसके धुएँ में प्रायः नारी अपनी मर्यादा को भी धूमिल कर देती है। आशापूर्णा ने नारी स्वाधीनता के बड़े-बड़े नारे नहीं लगाए, न ही किसी को नीचा दिखाया। समाज के बंधन में रहकर, संस्कार और लोकाचार निभाकर भी उन्होंने कुछ चरित्र ऐसे आँके, जिनमें नारी मुक्ति की सही छवि है। प्रथम प्रतिश्रुति की सत्यवती एक ऐसी ही स्वाभिमानिनी नारी है। नारी का यह रूप उन्होंने अपनी कहानियों तथा अपने उपन्यासों में बार-बार अंकित किया है। यह नारी समाज-व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाती है। शोर-गुल और नारों से नहीं, अपनी मृदु स्पष्ट आवाज में वह अन्याय का विरोध करती है, अन्त तक संघर्ष करती है पर समझौता नहीं करती।
यद्यपि आशापूर्णा देवी ने नारी चरित्र को अपने लेखन का मूल विषयवस्तु बनाया, उनकी रचनाएँ केवल इसी विषय में केंद्रित नहीं रहीं। मानव-चरित्र की अनजान गलियों पर उन्होंने इस खूबी से प्रकाश डाला इस रोचक ढंग से उन्हें उबारा कि पाठक को लगा कि जो दिखाई देता है, वह कुछ भी नहीं। जो उसके भीतर है, उसकी आकस्मिक झलक ही यह बता देती है कि भीतर है अथाह सागर, जिसकी गहराई में छिपे हैं अनमोल मोती, जिनका दर्शन, जीवन के किसी मोड़ पर, किसी विशेष क्षण में अकस्मात् ही हो जाता है। ऐसे विशेष पल का स्फुरण आशापूर्णा देवी की कहानियों में हमें बार-बार देखने को मिलता है।
इनकी रचनाओं का अनुवाद हिन्दी तथा विभिन्न आंचलिक भाषाओं में हुआ जिसके फलस्वरूप उनकी अमूल्य रचनाएँ बंगला भाषा के सीमित दायरे से बाहर निकलकर भारतीय साहित्य में शोभित हो रही हैं। दीर्घ पचास वर्ष की साहित्य रचनाओं में एक ओर श्रीमती आशापूर्णा देवी के उपन्यासों में नारी चरित्र के जटिल भावों का मंथन और अमृत की उपलब्धि है, तो दूसरी ओर उनकी छोटी कहानियों के जीवन के विभिन्न पहलुओं के भीतर से मानव-चरित्र का अनोखा रूपायण देखने को मिलता है।
बाजार में घूमते-घूमते एक दिन शंखधर को निरानंद मिल गया। उसे घर ले आये क्योंकि किशोर-वयस्क निरानंद अथवा नीरु में उन्हें अपने ही अतीत जीवन की छवि दिखाई पड़ी। वह लांछना, अत्याचार तथा अपमान भरा जीवन था जिससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने घर छोड़ा था। परन्तु वृद्ध शंखधर तथा किशोर नीरू की आत्मीयता को उनके परिवार के लोगों ने सरलता से स्वीकार नहीं किया। भाग्यचक्र ने नीरू को फिर सड़क पर ला दिया।
ये सभी आनंदधाम के वाशिंदे थे। यहाँ सब कुछ होते हुए भी आनंद की ही कमी थी। यह सत्य और नग्न होकर भी शंखधर को दृष्टिगोचर हुआ, जब दरिद्र अभागे नीरू की डायरी उनके हाथ लग गई।
यह उपन्यास एक संकेत छोड़ जाता है कि अक्सर हम परिस्थिति के साथ समझौता करते-करते इतना दबते चले जाते हैं कि जीवन के सही मूल्यों के लिए लड़ने की क्षमता भी खो बैठते हैं। केवल एक पीड़ा का अनुभव होता है और फिर हमारा ज़मीर सो जाता है।
अस्त-व्यस्त बिखरे हुए बाल घुटनों तक धूल से सने नंगे पाँव, यहाँ-वहाँ चिपकी लगी हुई फटी-मैली धोती इतनी छोटी कि उस धूल को ढकने में समर्थ नहीं हो पाई। घुटनों के नीचे आकर ही रुक गई है। बदन में गंजी जैसा कुछ लटक रहा है पर उसकी सारी पीठ पर अनगिनत खिड़की-दरवाज़े हैं। शायद जाड़े की सर्द हवा से ही दोनों गाल रूखे, खुरदुरे हो गये हैं, होंठ फटे हुए हैं। देखकर लगता है कभी रंग गोरा रहा होगा। अब वह इतिहास बन गया है।
मगर ऐसी पृष्ठभूमि पर दोनों आँखें गजब की चमकीली मानों जँचती ही नहीं। आँखों के भीतर जैसे दो नीले काँच की गोलियाँ चमक रही हैं।
उन दो आँखों पर नजर पड़ते ही चौंक कर ठहर गये थे शंखधर राय। भरे बाजार में लावारिस की तरह उद्देश्यहीन-सा घूम रहा था देखते ही पता चला अकेला है, कोई ठौर-ठिकाना भी नहीं है।
शंखधर के ठहरते ही वह लड़का भी खड़ा हो गया। देखा उन चमकीली आँखों से। कुछ कौतुहल, कुछ जिज्ञासा थी उन आँखों में। एक बार सर से पैर तक उस पर नज़र घुमाकर शंखधर बोले, किसका लड़का है तू ?
लड़के ने गंभीर स्वर में जवाब दिया, ‘आदमी का कहो तो आदमी का, भूत-पिरेत का कहो तो वही।
ऐसे अनोखे जवाब से शंखधर हैरान हो गये। बोले, भूत-प्रेत क्यों कहूँगा, जब आदमी जैसे ही हाथ-पैर, आँख-कान-नाक सब हैं।
तब पूछते हो काहे को ?
अरे बाबा, आदमी ही तो आदमी का नाम पूछता है। किसका बेटा है, अचानक कहाँ से आ गया, बेमतलब बाजार में क्यों घूम रहा है, पूछूँगा नहीं ?
लड़का तीखे स्वर में बोला, काहे ? काहे पूछोगे तुम ? बाजार तुमरा खरीदा हुआ है का ? कोई मन मुताबिक घूम-फिर नहीं सकता का ?
ऐसे संभाषण से शंखधर चौंक गये। वह एक प्रतिष्ठावान व्यक्ति हैं, समाज हैं साख है उनकी। बिना लिहाज किये कोई बात नहीं करता है उनसे। इस तरह उनसे कोई बात करेगा, सोच भी नहीं सकते हैं वह। फिर भी क्रोध करने के बदले मज़ा लेने लगे वे।....एकदम जंगली है ‘‘आप’’ कहना भी नहीं आता है।
शायद जंगलीपन का भी अपना एक आकर्षण होता है। इसीलिए और अच्छी तरह निरीक्षण करने लगे उसका। आचरण से तो जंगली है, वेशभूषा से भिखारी जैसा ही, फिर भी चेहरे की रेखाओं में कहीं एक कोमलता का आभास है। और उसकी आँखें !
केवल सुन्दर ही नहीं, यहाँ पर मानो अप्रत्याशित हैं।
यह शायद बुद्धि की ही दीप्ति है जो झलक रही है। आज छुट्टी का दिन है, बेटे को दफ्तर नहीं जाना है, इसलिए कोई जल्दबाज़ी नहीं है। इसलिए शंखधर को एक खेल सूझ गया।
बोले, मान ले बाजार मेरा खरीदा हुआ है।
लापरवाही से लड़के ने कहा, ई...ह ! इत्ता सस्ता नहीं है। हाथ में झोली लटकाकर तो बाजार आये हो।
वह मेरा शौक है।
व्यंग्य भरे स्वर में लड़का बोला, हाँ, जइसन हमारा फटल चिथड़ा पहिन के घूमने का सौक है।
अरे बाप रे ! गजब कर दिया ! इतना छोटा-सा होकर इतनी बातें कहाँ से सीख ली तूने ?
बात सीखने के लिए मास्टर रखना पड़ता है का ?...इ दुनिया में चरते-चरते सीख जाता है आदमी।
अभी तक शंखधर ने कुछ खरीदा नहीं था। खाली झोले को इधर-उधर नचाते बोले, वही तो देख रहा हूँ। तो इतनी-सी उम्र में कहाँ इतना घूम लिया तूने ?
अचानक लड़का उदास स्वर में बोला, जगत-बरमांड ही घूम लिये। मगर तुम उतना जान कर का करोगे।
करूँगा कुछ। चल मेरे साथ।
लड़का तुनक कर बोला, काहे ? तुमरे साथ जाएँगे काहे ?
तू मुझे बड़ा पसन्द आ गया है। पालना चाहता हूँ।
पालना ?
उसकी चमकीली आँखें अचानक जैसे दहक उठीं।
पालना चाहते हो हमको ? हम कोई चिड़ई, कुत्ता-बिल्ली हैं का !
छी-छी ! यह कोई बात हुई ? सर हिलाकर शंखधर बोले, नहीं देख रहा हूँ बोलना खूब सीख गया है मगर अच्छी बात नहीं सीखी।
आँखों की चमक गायब हो गई। अचानक मुँह फेर कर वह बोला, अच्छा-अच्छा बोलना सुने कब जो सीखेंगे ?
हाँ समझा। अच्छा, अगर पालने से तुझे आपत्ति है तो काम ही कर ले ?
शक्की आवाज में लड़का बोला—का काम ?
शंखधर बोले, जैसे कि रोज मेरे साथ बाज़ार आना, झोली को ढोकर ले जाना—
लड़के के हँसी में फिर से व्यंग्य था। बोला, काहे ? अपने ढोने का सौक चला गया ?
ऐसा ही लगता है।
तब खाली उतना ही करेंगे—
दृढ़ स्वर में लड़का बोला, जूता-उता झाड़ने को नहीं कहोगे, मइला कपड़ा धोने को नहीं कहोगे, जूठन नहीं उठवाओगे, पहिले ही बोल देते हैं। जैसे भी हैं, आखिर हैं तो ‘बराम्हन’ का बेटा’....।
ब्राह्मण का लड़का। चौंक गये शंखधर। बोले, अच्छा ब्राह्मण के लड़के हो ?
सोचा ठीक है। इसी तरह बातों ही बातों में घर का पता चल जायगा। अब लग रहा है घर से भागा हुआ है।
शंखधर के आश्चर्य को देखकर वह लड़का क्षुब्ध होकर बोला—देख कर बिसवास नहीं होता है का ?
नहीं ऐसी बात नहीं है। मगर जब तक जनेऊ न हो तो देखकर पता नहीं चलता है।
लड़का गंभीर स्वर में बोला, कौन बोला नहीं हुआ ?
हुआ तो गले में क्यों नहीं है ?
उ चला गया।
दूसरी ओर मुँह फेर कर उदास स्वर में बोला, सालगिराम पूज कर दो पइसा घर में कमाकर लाएंगे, इही सोच कर ताऊ गला में जनेऊ लटका दिया। लोहा-पत्थर तो नहीं है। कब तक रहेगा ? कब फट से निकल गया।
शंखधर को शायद कोई सूत्र मिल गया। ‘ताऊ गले में जनेऊ लटका दिया था। इससे लगता है बाप नहीं है। शायद माँ भी नहीं। अतः इसके पीछे छिपा है इस निर्दयी दुनिया का एक ममताहीन इतिहास, जिसके कारण वह घर छोड़कर निकल गया है।
फिर भी वार्तालाप करते रहे शंखधर, बोले, नया जनेऊ पहन लेना चाहिये था। ब्राह्मण का लड़का, जनेऊ हो गया, अब गला खाली ठीक लगता है क्या ?
नहीं है तो नहीं है, अब नया कहाँ से ! हूँ !
शंखधर उसकी उज्जवल आँखों की विचित्र अभिव्यक्ति को देखकर चकित रह गये। और यह भी समझ गये कि इसे उत्तेजित करने से ही कुछ अता-पता मिल सकेगा।
मगर बाजार की सड़क पर एक भूखा-नंगा लड़का मारा फिर रहा है तो शंखधर क्यों परेशान हो रहे हैं ? उन्हें क्या जरूरत है उसका अता-पता मालूम करने की ? घर से भागे हुए लड़कों के पीछे कितने तरह की घटनाएँ होती हैं। वे सारी ही करुण हैं कि नहीं कौन जानता है। कुछ जन्म से ही वैरागी मन लेकर आते हैं, उन्हें प्रियजनों का प्यार बाँधकर नहीं रख सकता है। कुछ तो ऐसे होते हैं जिनके सर पर न छत होती है न पैरों-तले जमीन, वे दुनिया के बाज़ार में मारे-मारे फिरते हैं।...और कोई-कोई शैशव में ही अपराधी मनोवृत्ति के कारण समाज विरोधी काम कर बैठता है, बुरी संगति में पड़कर अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर बैठता है। यह ज़रूरी नहीं है कि उसकी आँखें सुन्दर और चेहरा सुकुमार है इसलिए वह बाल-गोपाल ही हो। मगर अपराधियों की आँखें ऐसी निडर होती हैं क्या ? शंखधरउस लड़के को टाल नहीं पा रहे हैं। जैसे उन्हें कोई रोक रहा है।
अतः जाते हुए लड़के को भी उन्होंने रोक लिया। ‘हँसकर बोले, कोई तुझे ब्राह्मण मानेगा क्यों ?
लड़का बोला, नहीं माने, बला से। हम किसी को मानने के लिए पैर तो नहीं पकड़ रहे हैं। तुम बोल रहे थे काम दोगे। इसीलिए पहले से बोल देते हैं, छोटा काम नहीं करेंगे।
हँस पड़े शंखधर। बोले, अच्छा मत करना। ये झोला तो पकड़ेगा न ?
काहे नहीं पकड़ेंगे। दो न ! चलो का खरीदना है।
खाली झोला उसके हाथ में देकर शंखधर बोले, ‘हाँ चल, सब्जी खरीद लेते हैं। भारी उठा सकेगा न ?
देख लो, सकते हैं कि नहीं ?
कहकर आगे बढ़ने लगा वह लड़का और तभी तेज़ कदम चल कर उसके सामने आकर खड़े हो गये शंखधर। बोले, अरे-रे, इतनी बात कर ली, असली बात ही पूछना भूल गया। क्या नाम है रे तेरा ?
निरासक्त भाव से लड़का बोला—
निरानंद !
हाँ ? क्या कहा ? क्या नाम कहा ?
बोले तो—निरानंद।
सर पर हाथ रख कर शंखधर बोले, भला निरानंद नाम होता है किसी का ?
कहने के साथ ही उन्हें अनुभव हुआ यह पूछकर उन्होंने ठीक नहीं किया। कौन नहीं जानता है मध्यमवर्गीय समाज के माता-पिता अपने दिल का गुबार निकालने के लिए अपने नवजात शिशुओं को ही मोहरा बना लेते हैं।
वे अबोध शिशु जो आवाज़ उठाना या विरोध करना नहीं जानते वे भी एक दिन बड़े होंगे, सम्पूर्ण मानव बनेंगे, इसी समाज-परिवार में घूमना-फिरना होगा उनका, यह बात उनके नाम-निर्धारक अभिभावक सोचकर भी नहीं देखते हैं।
इसीलिए कुछ निर्रथक प्यार-भरे बोल उन पर लाद दिये जाते हैं जिन्हें सुनकर उन नाम-निर्धारकों के हृदयहीन स्वेच्छाचार का ही परिचय मिलता है। अपने प्यार को विचित्र नामों से अलंकृत कर बच्चों पर जतलाना तो हमारी प्राचीन संस्कृति ही रही है।
शंखधर ने अपने आस-पास ऐसे बहुत जाने-माने लोगों को इस प्रकार के नाम का बोझ ढोते हुए देखा है।
भोंदू, नाटू, कलुआ, सुखरू, छुटकी, गंजू आदि अनेक नाम हैं जो रूप, गुण या किसी विशेषार्थ के प्रतीक है।
इसी प्रकार घटनाओं से जुड़े हुए नाम भी अक्सर देखने को मिलते हैं।
जिन शिशुओं के जन्म काल में समाज, परिवार या देश में विशेष घटना घट जाती है, उन घटनाओं को हमेशा यादगार बना लेने के लिए उन नवजात शिशुओं को ही तो स्मारक स्तंभ बना लिया जाता है। अश्रु, वेदना, अभागी, बेचारा, दुखिया यह सब तो कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि कंगला, कुलच्छनी, अकाली, भुक्खड़ जैसे नाम भी शंखधर ने सुने हैं।
अतः निरानंद कोई इतना अनोखा नाम नहीं कहा जा सकता है। ऐसा नाम किसी का नहीं होता—यह कहना उचित तो नहीं होता परन्तु हाथ से छूटे तीर और मुँह से निकले बोल एक बार निकल गये तो गये। फिर वापस आना असम्भव है।
मगर निरानंद इस बात से क्रोधित नहीं हुआ, केवल निरानंद स्वर में बोला, कउन बोला नहीं होता है। अभागा लोग का होता है। बड़ा भैया का नाम था महानंद, मझला भैया का नाम सुधानंद। हमारे जनम से पहले माँ बोली अबकी बेटा होने से नाम होगा परमानंद। मगर वही बेटा जना तो माँ को स्वर्ग का टिकट मिल गया। दादी मारे गुस्से के नाम रख दी निरानंद।
समझ गया। तो दादी ने ही पाला है क्या तुझे ?
निरानंद ने नाराज होकर देखा और उसी स्वर में कहा, ‘हाँ, पाला है या जो किया है। लो, अब जान गये न सब ? अब बाजार जाना है कि नहीं ? सब्जी-मच्छली सब गायब नहीं हो जायगा तब तक ? ऐसा लगा जैसे शंखधर उस जंगली, गँवार लड़के के साथ बातों के टक्कर में भिड़ गये हों। क्या हरदम खातिरदारी की बात सुनते-सुनते भी ऊब जाता है आदमी ? क्या तभी इस प्रकार की लापरवाही, सीधी-सपाट बातें मीठी लगने लगी उन्हें ?
हँस कर बोले, गायब हो जायेंगी ? क्या कह रहा तू ! इतने पहाड़ जैसे ढेर सामान गायब हो जायेंगे ?
निरानंद भी कम हाजिर-जवाब नहीं। बोला, आदमी भी तो है समुंदर जैसे।
फिर भी। यह है हाथी-बागान बाज़ार। नाम से ही मालूम होता है कैसा बाज़ार है। हाँ, तो एक बात बता। सब कुछ बता दिया तूने मगर गाँव कौन सा है कहाँ बताया ?
निरानंद दृढ़ स्वर में बोला, उ तो नहीं बतावेंगे हम !
अच्छा ! क्यों नहीं, थोड़ा हँसकर शंखधर उसके रूखे बालों पर हाथ फेरकर बोले, घर से भाग कर आया है क्यों ? नाम बताने से कहीं पता चल जाए इसीलिए ! है न ?
निरानंद सहमी हुई आँखों से देखने लगा। फिर तीव्र विरोध के साथ बोल उठा, कउन बोला कि हम भागकर आये हैं ?
देखकर तो घर से भागा हुआ ही लगता है।
लड़के ने तीखे स्वर में कहा, हाँ, बदन पर लिक्खा हुआ है न ? अच्छा-, अगर गर्दन पकड़ कर निकाल देने से कोई घर से भागा हुआ हो जाता है, तब तो हम वही हैं।
फिर अचानक ही झोली को आगे बढ़ाकर बोला, इ ले लो तुमरा झोली, तुमरा पास काम करने की कोई जरूरत नहीं है हमको।
क्यों रे ? अचानक क्या हो गया ?
बाप रे ! बीस तरह का बात पूछते हो। पुलिस का आदमी हो का। इतना बात कौन सुनेगा ! भूख से चूहा दउड़ रहा है पेट में, इ में जितना आलतू-फालतू बात ! इ सब जान कर का मिल जायगा तुमको, आँय ?
बारहवें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी एक ऐसी ही सितारा हैं, जिन्होंने उपन्यास तथा कहानी-लेखन में समान रूप से दक्षता का परिचय दिया। इनका जन्म सन् 1910 के 8 जनवरी को कलकत्ते के एक संरक्षणशील परिवार में हुआ। स्कूल-कॉलेज की औपचारिक शिक्षा इन्हें प्राप्त नहीं हुई। यह परम आश्चर्य की बात है कि जिन्होंने जीवन में उन्मुक्तता का स्वाद नहीं चखा, उनकी दृष्टि में इतना विस्तार कैसे आ गया। शायद यह उनकी साहित्य-प्रेमी माँ की प्रेरणा का फल था कि साहित्य में उनकी गहरी रुचि बचपन से ही हो गई।
उनकी प्रथम पुस्तक ‘जल आर आगुन’ सन् 1940 में प्रकाशित हुई। उन्हें ‘लीला पुरस्कार’ (सन् 1954), ‘मोतीलाल घोष पुरस्कार’ (1959), भुवन मोहिनी स्मृति पदक (1963), रवीन्द्र पुरस्कार (1966), तथा प्रथम उपन्यास ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मश्री’ की उपाधि से भूषित किया। इसके अतिरिक्त जब्बलपुर विश्वविद्यालय रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय तथा वर्धमान विश्वविद्यालय से इन्हें मानद डी.लिट्. की उपाधि प्रधान की गई।
मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में इन्होंने लिखना प्रारम्भ किया और जीवन के अंतिम दिनों तक लिखती रहीं। अपने सारे कर्तव्य पूरी तरह निभाते हुए, आचार-आचरण, पारिवारिक प्रथाओं को पूर्ण मान्यता देते हुए भी वे साहित्य-सृष्टि के कार्य में सतत् प्रयत्नशील रहीं।
चारदीवारी के भीतर रहकर उन्होंने वही जीवन देखा जो उनकी खिड़की के सामने था वह जीवन लाखों-करोड़ों मध्यवित्त लोगों का जीवन था और उनका अपना भी। इस जीवन में साधारण दृष्टि से कोई नाटकीयता नहीं थी। घटनाएँ वैसे ही सामान्य जैसी प्रति-दिन हमारे आस-पास घटती हैं। इस एक सुरे, स्वादहीन जीवन में आशापूर्णा देवी ने नाटक की रोचकता का आस्वादन किया, तरंगहीन नदी के भीतर से समुद्र की लहरों की तान सुनी। इस प्रकार ‘बिंदु में सिंधु दर्शन’, यही उनके लेखन की विशेषता रही। प्रतिपल घटने वाली सामान्य घटना कहानी के एक मोड़ पर आकर असामान्य हो गई। जीवन के आसपास मँडराते अनगिनत चरित्र, जिन्हें हम कोई मूल्य नहीं देते, लेखन के जादू-स्पर्श से वही चरित्र अचानक असामान्य होकर उभरे। पढ़कर ऐसा लगा—‘ऐसा ही चरित्र तो हमने देखा है, पर कभी इस तरह से उसे देखा समझा नहीं।’ यह आशापूर्णा देवी की अन्तर्दृष्टि ही है जो सामान्य में भी असामान्य का दर्शन कराती है।
अपने उपन्यास या कहानी के माध्यम से उन्होंने कभी कोई उपदेश या आदर्श स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उन्होंने जीवन को जिस रूप में देखा, वैसे ही प्रस्तुत किया। उसमें कहीं भी रत्ती भर अतिरंजन नहीं हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में निम्नवर्ग के दलितों की कथा नहीं है, उस उच्च वर्ग की कहानी भी नहीं है, आधुनिक साहित्य में आज जिसकी बड़ी चर्चा है। उन्होंने तो उसी जीवन को अपने लेखन का आधार बनाया, जिसका वह एक अभिन्न अंग थीं और उसी जीवन की उपलब्धियों को लोगों के सामने रखा।
साधारणतः हम कहानी का रस काव्यों और ग्रंथों में ढूँढ़ते हैं। परन्तु यह रस हमारे वास्तविक जीवन के आस-पास भरा पड़ा है, केवल हमें दिखाई नहीं देता। वह अन्तर्दृष्टि हमारे पास नहीं है, जिसकी सहायता से ‘सुख-दुख-समस्या’ भरे इस जीवन में से उस रस को निचोड़कर उसका आनन्द ले सकें। आशापूर्णा देवी ने अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से उस रस को खोज निकाला और अपनी निपुण रचनाओं द्वारा पाठकों को भी इसका रसास्वादन कराया।
इनकी रचनाओं में जीवन की दैनंदिन समस्याओं का उल्लेख है, सीधे-सादे सरल शब्दों में उनका वर्णन है। परन्तु जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार अपनी तूलिका के निपुण स्पर्श से चित्र में जान डाल देता है, वैसे ही आशापूर्णा देवी की लेखन-कुशलता सामान्य कथानक को असमान्य बना देती हैं।
इनकी रचनाओं में सर्वप्रमुख विशेषता है—इनका नारी चरित्र-चित्रण। अपने श्रेष्ठ उपन्यास—‘प्रथम प्रतिश्रुति’, ‘सुवर्णलता’ तथा ‘बकुलकथा’ में इन्होंने तीनों युगों से निकलते हुए नारी-जीवन के संघर्ष का चित्रण किया है। ‘सत्यवती’, ‘सुवर्णलता तथा ‘बकुल’ अपने-अपने युग की निर्यातिता नारी का प्रतीक हैं, जो निरंतर कुरीतियों से, असंतुलित समाज-व्यवस्था से तथा पुरुष-प्रधान समाज में घटित नारी-निग्रह से जूझती रहती हैं। अपने विभिन्न उपन्यासों तथा कहानी के माध्यम से इन्होंने नारी-चरित्र का मनोविश्लेषण बहुत गहराई से किया है।
आज नारी-मुक्ति, नारी-आंदोलन आदि के नित नये नारे सभा-समितियों में गूँजते सुनाई पड़ते हैं। वहाँ विद्रोह है, विक्षोभ है, पुरुष-विद्वेष है, जिसके धुएँ में प्रायः नारी अपनी मर्यादा को भी धूमिल कर देती है। आशापूर्णा ने नारी स्वाधीनता के बड़े-बड़े नारे नहीं लगाए, न ही किसी को नीचा दिखाया। समाज के बंधन में रहकर, संस्कार और लोकाचार निभाकर भी उन्होंने कुछ चरित्र ऐसे आँके, जिनमें नारी मुक्ति की सही छवि है। प्रथम प्रतिश्रुति की सत्यवती एक ऐसी ही स्वाभिमानिनी नारी है। नारी का यह रूप उन्होंने अपनी कहानियों तथा अपने उपन्यासों में बार-बार अंकित किया है। यह नारी समाज-व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाती है। शोर-गुल और नारों से नहीं, अपनी मृदु स्पष्ट आवाज में वह अन्याय का विरोध करती है, अन्त तक संघर्ष करती है पर समझौता नहीं करती।
यद्यपि आशापूर्णा देवी ने नारी चरित्र को अपने लेखन का मूल विषयवस्तु बनाया, उनकी रचनाएँ केवल इसी विषय में केंद्रित नहीं रहीं। मानव-चरित्र की अनजान गलियों पर उन्होंने इस खूबी से प्रकाश डाला इस रोचक ढंग से उन्हें उबारा कि पाठक को लगा कि जो दिखाई देता है, वह कुछ भी नहीं। जो उसके भीतर है, उसकी आकस्मिक झलक ही यह बता देती है कि भीतर है अथाह सागर, जिसकी गहराई में छिपे हैं अनमोल मोती, जिनका दर्शन, जीवन के किसी मोड़ पर, किसी विशेष क्षण में अकस्मात् ही हो जाता है। ऐसे विशेष पल का स्फुरण आशापूर्णा देवी की कहानियों में हमें बार-बार देखने को मिलता है।
इनकी रचनाओं का अनुवाद हिन्दी तथा विभिन्न आंचलिक भाषाओं में हुआ जिसके फलस्वरूप उनकी अमूल्य रचनाएँ बंगला भाषा के सीमित दायरे से बाहर निकलकर भारतीय साहित्य में शोभित हो रही हैं। दीर्घ पचास वर्ष की साहित्य रचनाओं में एक ओर श्रीमती आशापूर्णा देवी के उपन्यासों में नारी चरित्र के जटिल भावों का मंथन और अमृत की उपलब्धि है, तो दूसरी ओर उनकी छोटी कहानियों के जीवन के विभिन्न पहलुओं के भीतर से मानव-चरित्र का अनोखा रूपायण देखने को मिलता है।
बाजार में घूमते-घूमते एक दिन शंखधर को निरानंद मिल गया। उसे घर ले आये क्योंकि किशोर-वयस्क निरानंद अथवा नीरु में उन्हें अपने ही अतीत जीवन की छवि दिखाई पड़ी। वह लांछना, अत्याचार तथा अपमान भरा जीवन था जिससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने घर छोड़ा था। परन्तु वृद्ध शंखधर तथा किशोर नीरू की आत्मीयता को उनके परिवार के लोगों ने सरलता से स्वीकार नहीं किया। भाग्यचक्र ने नीरू को फिर सड़क पर ला दिया।
ये सभी आनंदधाम के वाशिंदे थे। यहाँ सब कुछ होते हुए भी आनंद की ही कमी थी। यह सत्य और नग्न होकर भी शंखधर को दृष्टिगोचर हुआ, जब दरिद्र अभागे नीरू की डायरी उनके हाथ लग गई।
यह उपन्यास एक संकेत छोड़ जाता है कि अक्सर हम परिस्थिति के साथ समझौता करते-करते इतना दबते चले जाते हैं कि जीवन के सही मूल्यों के लिए लड़ने की क्षमता भी खो बैठते हैं। केवल एक पीड़ा का अनुभव होता है और फिर हमारा ज़मीर सो जाता है।
अस्त-व्यस्त बिखरे हुए बाल घुटनों तक धूल से सने नंगे पाँव, यहाँ-वहाँ चिपकी लगी हुई फटी-मैली धोती इतनी छोटी कि उस धूल को ढकने में समर्थ नहीं हो पाई। घुटनों के नीचे आकर ही रुक गई है। बदन में गंजी जैसा कुछ लटक रहा है पर उसकी सारी पीठ पर अनगिनत खिड़की-दरवाज़े हैं। शायद जाड़े की सर्द हवा से ही दोनों गाल रूखे, खुरदुरे हो गये हैं, होंठ फटे हुए हैं। देखकर लगता है कभी रंग गोरा रहा होगा। अब वह इतिहास बन गया है।
मगर ऐसी पृष्ठभूमि पर दोनों आँखें गजब की चमकीली मानों जँचती ही नहीं। आँखों के भीतर जैसे दो नीले काँच की गोलियाँ चमक रही हैं।
उन दो आँखों पर नजर पड़ते ही चौंक कर ठहर गये थे शंखधर राय। भरे बाजार में लावारिस की तरह उद्देश्यहीन-सा घूम रहा था देखते ही पता चला अकेला है, कोई ठौर-ठिकाना भी नहीं है।
शंखधर के ठहरते ही वह लड़का भी खड़ा हो गया। देखा उन चमकीली आँखों से। कुछ कौतुहल, कुछ जिज्ञासा थी उन आँखों में। एक बार सर से पैर तक उस पर नज़र घुमाकर शंखधर बोले, किसका लड़का है तू ?
लड़के ने गंभीर स्वर में जवाब दिया, ‘आदमी का कहो तो आदमी का, भूत-पिरेत का कहो तो वही।
ऐसे अनोखे जवाब से शंखधर हैरान हो गये। बोले, भूत-प्रेत क्यों कहूँगा, जब आदमी जैसे ही हाथ-पैर, आँख-कान-नाक सब हैं।
तब पूछते हो काहे को ?
अरे बाबा, आदमी ही तो आदमी का नाम पूछता है। किसका बेटा है, अचानक कहाँ से आ गया, बेमतलब बाजार में क्यों घूम रहा है, पूछूँगा नहीं ?
लड़का तीखे स्वर में बोला, काहे ? काहे पूछोगे तुम ? बाजार तुमरा खरीदा हुआ है का ? कोई मन मुताबिक घूम-फिर नहीं सकता का ?
ऐसे संभाषण से शंखधर चौंक गये। वह एक प्रतिष्ठावान व्यक्ति हैं, समाज हैं साख है उनकी। बिना लिहाज किये कोई बात नहीं करता है उनसे। इस तरह उनसे कोई बात करेगा, सोच भी नहीं सकते हैं वह। फिर भी क्रोध करने के बदले मज़ा लेने लगे वे।....एकदम जंगली है ‘‘आप’’ कहना भी नहीं आता है।
शायद जंगलीपन का भी अपना एक आकर्षण होता है। इसीलिए और अच्छी तरह निरीक्षण करने लगे उसका। आचरण से तो जंगली है, वेशभूषा से भिखारी जैसा ही, फिर भी चेहरे की रेखाओं में कहीं एक कोमलता का आभास है। और उसकी आँखें !
केवल सुन्दर ही नहीं, यहाँ पर मानो अप्रत्याशित हैं।
यह शायद बुद्धि की ही दीप्ति है जो झलक रही है। आज छुट्टी का दिन है, बेटे को दफ्तर नहीं जाना है, इसलिए कोई जल्दबाज़ी नहीं है। इसलिए शंखधर को एक खेल सूझ गया।
बोले, मान ले बाजार मेरा खरीदा हुआ है।
लापरवाही से लड़के ने कहा, ई...ह ! इत्ता सस्ता नहीं है। हाथ में झोली लटकाकर तो बाजार आये हो।
वह मेरा शौक है।
व्यंग्य भरे स्वर में लड़का बोला, हाँ, जइसन हमारा फटल चिथड़ा पहिन के घूमने का सौक है।
अरे बाप रे ! गजब कर दिया ! इतना छोटा-सा होकर इतनी बातें कहाँ से सीख ली तूने ?
बात सीखने के लिए मास्टर रखना पड़ता है का ?...इ दुनिया में चरते-चरते सीख जाता है आदमी।
अभी तक शंखधर ने कुछ खरीदा नहीं था। खाली झोले को इधर-उधर नचाते बोले, वही तो देख रहा हूँ। तो इतनी-सी उम्र में कहाँ इतना घूम लिया तूने ?
अचानक लड़का उदास स्वर में बोला, जगत-बरमांड ही घूम लिये। मगर तुम उतना जान कर का करोगे।
करूँगा कुछ। चल मेरे साथ।
लड़का तुनक कर बोला, काहे ? तुमरे साथ जाएँगे काहे ?
तू मुझे बड़ा पसन्द आ गया है। पालना चाहता हूँ।
पालना ?
उसकी चमकीली आँखें अचानक जैसे दहक उठीं।
पालना चाहते हो हमको ? हम कोई चिड़ई, कुत्ता-बिल्ली हैं का !
छी-छी ! यह कोई बात हुई ? सर हिलाकर शंखधर बोले, नहीं देख रहा हूँ बोलना खूब सीख गया है मगर अच्छी बात नहीं सीखी।
आँखों की चमक गायब हो गई। अचानक मुँह फेर कर वह बोला, अच्छा-अच्छा बोलना सुने कब जो सीखेंगे ?
हाँ समझा। अच्छा, अगर पालने से तुझे आपत्ति है तो काम ही कर ले ?
शक्की आवाज में लड़का बोला—का काम ?
शंखधर बोले, जैसे कि रोज मेरे साथ बाज़ार आना, झोली को ढोकर ले जाना—
लड़के के हँसी में फिर से व्यंग्य था। बोला, काहे ? अपने ढोने का सौक चला गया ?
ऐसा ही लगता है।
तब खाली उतना ही करेंगे—
दृढ़ स्वर में लड़का बोला, जूता-उता झाड़ने को नहीं कहोगे, मइला कपड़ा धोने को नहीं कहोगे, जूठन नहीं उठवाओगे, पहिले ही बोल देते हैं। जैसे भी हैं, आखिर हैं तो ‘बराम्हन’ का बेटा’....।
ब्राह्मण का लड़का। चौंक गये शंखधर। बोले, अच्छा ब्राह्मण के लड़के हो ?
सोचा ठीक है। इसी तरह बातों ही बातों में घर का पता चल जायगा। अब लग रहा है घर से भागा हुआ है।
शंखधर के आश्चर्य को देखकर वह लड़का क्षुब्ध होकर बोला—देख कर बिसवास नहीं होता है का ?
नहीं ऐसी बात नहीं है। मगर जब तक जनेऊ न हो तो देखकर पता नहीं चलता है।
लड़का गंभीर स्वर में बोला, कौन बोला नहीं हुआ ?
हुआ तो गले में क्यों नहीं है ?
उ चला गया।
दूसरी ओर मुँह फेर कर उदास स्वर में बोला, सालगिराम पूज कर दो पइसा घर में कमाकर लाएंगे, इही सोच कर ताऊ गला में जनेऊ लटका दिया। लोहा-पत्थर तो नहीं है। कब तक रहेगा ? कब फट से निकल गया।
शंखधर को शायद कोई सूत्र मिल गया। ‘ताऊ गले में जनेऊ लटका दिया था। इससे लगता है बाप नहीं है। शायद माँ भी नहीं। अतः इसके पीछे छिपा है इस निर्दयी दुनिया का एक ममताहीन इतिहास, जिसके कारण वह घर छोड़कर निकल गया है।
फिर भी वार्तालाप करते रहे शंखधर, बोले, नया जनेऊ पहन लेना चाहिये था। ब्राह्मण का लड़का, जनेऊ हो गया, अब गला खाली ठीक लगता है क्या ?
नहीं है तो नहीं है, अब नया कहाँ से ! हूँ !
शंखधर उसकी उज्जवल आँखों की विचित्र अभिव्यक्ति को देखकर चकित रह गये। और यह भी समझ गये कि इसे उत्तेजित करने से ही कुछ अता-पता मिल सकेगा।
मगर बाजार की सड़क पर एक भूखा-नंगा लड़का मारा फिर रहा है तो शंखधर क्यों परेशान हो रहे हैं ? उन्हें क्या जरूरत है उसका अता-पता मालूम करने की ? घर से भागे हुए लड़कों के पीछे कितने तरह की घटनाएँ होती हैं। वे सारी ही करुण हैं कि नहीं कौन जानता है। कुछ जन्म से ही वैरागी मन लेकर आते हैं, उन्हें प्रियजनों का प्यार बाँधकर नहीं रख सकता है। कुछ तो ऐसे होते हैं जिनके सर पर न छत होती है न पैरों-तले जमीन, वे दुनिया के बाज़ार में मारे-मारे फिरते हैं।...और कोई-कोई शैशव में ही अपराधी मनोवृत्ति के कारण समाज विरोधी काम कर बैठता है, बुरी संगति में पड़कर अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर बैठता है। यह ज़रूरी नहीं है कि उसकी आँखें सुन्दर और चेहरा सुकुमार है इसलिए वह बाल-गोपाल ही हो। मगर अपराधियों की आँखें ऐसी निडर होती हैं क्या ? शंखधरउस लड़के को टाल नहीं पा रहे हैं। जैसे उन्हें कोई रोक रहा है।
अतः जाते हुए लड़के को भी उन्होंने रोक लिया। ‘हँसकर बोले, कोई तुझे ब्राह्मण मानेगा क्यों ?
लड़का बोला, नहीं माने, बला से। हम किसी को मानने के लिए पैर तो नहीं पकड़ रहे हैं। तुम बोल रहे थे काम दोगे। इसीलिए पहले से बोल देते हैं, छोटा काम नहीं करेंगे।
हँस पड़े शंखधर। बोले, अच्छा मत करना। ये झोला तो पकड़ेगा न ?
काहे नहीं पकड़ेंगे। दो न ! चलो का खरीदना है।
खाली झोला उसके हाथ में देकर शंखधर बोले, ‘हाँ चल, सब्जी खरीद लेते हैं। भारी उठा सकेगा न ?
देख लो, सकते हैं कि नहीं ?
कहकर आगे बढ़ने लगा वह लड़का और तभी तेज़ कदम चल कर उसके सामने आकर खड़े हो गये शंखधर। बोले, अरे-रे, इतनी बात कर ली, असली बात ही पूछना भूल गया। क्या नाम है रे तेरा ?
निरासक्त भाव से लड़का बोला—
निरानंद !
हाँ ? क्या कहा ? क्या नाम कहा ?
बोले तो—निरानंद।
सर पर हाथ रख कर शंखधर बोले, भला निरानंद नाम होता है किसी का ?
कहने के साथ ही उन्हें अनुभव हुआ यह पूछकर उन्होंने ठीक नहीं किया। कौन नहीं जानता है मध्यमवर्गीय समाज के माता-पिता अपने दिल का गुबार निकालने के लिए अपने नवजात शिशुओं को ही मोहरा बना लेते हैं।
वे अबोध शिशु जो आवाज़ उठाना या विरोध करना नहीं जानते वे भी एक दिन बड़े होंगे, सम्पूर्ण मानव बनेंगे, इसी समाज-परिवार में घूमना-फिरना होगा उनका, यह बात उनके नाम-निर्धारक अभिभावक सोचकर भी नहीं देखते हैं।
इसीलिए कुछ निर्रथक प्यार-भरे बोल उन पर लाद दिये जाते हैं जिन्हें सुनकर उन नाम-निर्धारकों के हृदयहीन स्वेच्छाचार का ही परिचय मिलता है। अपने प्यार को विचित्र नामों से अलंकृत कर बच्चों पर जतलाना तो हमारी प्राचीन संस्कृति ही रही है।
शंखधर ने अपने आस-पास ऐसे बहुत जाने-माने लोगों को इस प्रकार के नाम का बोझ ढोते हुए देखा है।
भोंदू, नाटू, कलुआ, सुखरू, छुटकी, गंजू आदि अनेक नाम हैं जो रूप, गुण या किसी विशेषार्थ के प्रतीक है।
इसी प्रकार घटनाओं से जुड़े हुए नाम भी अक्सर देखने को मिलते हैं।
जिन शिशुओं के जन्म काल में समाज, परिवार या देश में विशेष घटना घट जाती है, उन घटनाओं को हमेशा यादगार बना लेने के लिए उन नवजात शिशुओं को ही तो स्मारक स्तंभ बना लिया जाता है। अश्रु, वेदना, अभागी, बेचारा, दुखिया यह सब तो कुछ भी नहीं, यहाँ तक कि कंगला, कुलच्छनी, अकाली, भुक्खड़ जैसे नाम भी शंखधर ने सुने हैं।
अतः निरानंद कोई इतना अनोखा नाम नहीं कहा जा सकता है। ऐसा नाम किसी का नहीं होता—यह कहना उचित तो नहीं होता परन्तु हाथ से छूटे तीर और मुँह से निकले बोल एक बार निकल गये तो गये। फिर वापस आना असम्भव है।
मगर निरानंद इस बात से क्रोधित नहीं हुआ, केवल निरानंद स्वर में बोला, कउन बोला नहीं होता है। अभागा लोग का होता है। बड़ा भैया का नाम था महानंद, मझला भैया का नाम सुधानंद। हमारे जनम से पहले माँ बोली अबकी बेटा होने से नाम होगा परमानंद। मगर वही बेटा जना तो माँ को स्वर्ग का टिकट मिल गया। दादी मारे गुस्से के नाम रख दी निरानंद।
समझ गया। तो दादी ने ही पाला है क्या तुझे ?
निरानंद ने नाराज होकर देखा और उसी स्वर में कहा, ‘हाँ, पाला है या जो किया है। लो, अब जान गये न सब ? अब बाजार जाना है कि नहीं ? सब्जी-मच्छली सब गायब नहीं हो जायगा तब तक ? ऐसा लगा जैसे शंखधर उस जंगली, गँवार लड़के के साथ बातों के टक्कर में भिड़ गये हों। क्या हरदम खातिरदारी की बात सुनते-सुनते भी ऊब जाता है आदमी ? क्या तभी इस प्रकार की लापरवाही, सीधी-सपाट बातें मीठी लगने लगी उन्हें ?
हँस कर बोले, गायब हो जायेंगी ? क्या कह रहा तू ! इतने पहाड़ जैसे ढेर सामान गायब हो जायेंगे ?
निरानंद भी कम हाजिर-जवाब नहीं। बोला, आदमी भी तो है समुंदर जैसे।
फिर भी। यह है हाथी-बागान बाज़ार। नाम से ही मालूम होता है कैसा बाज़ार है। हाँ, तो एक बात बता। सब कुछ बता दिया तूने मगर गाँव कौन सा है कहाँ बताया ?
निरानंद दृढ़ स्वर में बोला, उ तो नहीं बतावेंगे हम !
अच्छा ! क्यों नहीं, थोड़ा हँसकर शंखधर उसके रूखे बालों पर हाथ फेरकर बोले, घर से भाग कर आया है क्यों ? नाम बताने से कहीं पता चल जाए इसीलिए ! है न ?
निरानंद सहमी हुई आँखों से देखने लगा। फिर तीव्र विरोध के साथ बोल उठा, कउन बोला कि हम भागकर आये हैं ?
देखकर तो घर से भागा हुआ ही लगता है।
लड़के ने तीखे स्वर में कहा, हाँ, बदन पर लिक्खा हुआ है न ? अच्छा-, अगर गर्दन पकड़ कर निकाल देने से कोई घर से भागा हुआ हो जाता है, तब तो हम वही हैं।
फिर अचानक ही झोली को आगे बढ़ाकर बोला, इ ले लो तुमरा झोली, तुमरा पास काम करने की कोई जरूरत नहीं है हमको।
क्यों रे ? अचानक क्या हो गया ?
बाप रे ! बीस तरह का बात पूछते हो। पुलिस का आदमी हो का। इतना बात कौन सुनेगा ! भूख से चूहा दउड़ रहा है पेट में, इ में जितना आलतू-फालतू बात ! इ सब जान कर का मिल जायगा तुमको, आँय ?
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